शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

शानदार मर्डर मिस्ट्री फिल्म बने यूपी चुनाव


मुरादाबाद : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव किसी सफल मर्डर मिस्ट्री की कहानी से कम नहीं है। इस कहानी में अंतर सिर्फ इतना है कि वहां दर्शक कातिल कौन... के ईद घूमते हैं यहां मुख्यमंत्री कौन के..। जब हत्या हो जाती है और पुलिस अपनी जांच शुरू करती है तो एक के बाद एक कई किरदार सामने आते हैं। एक तो वह किरदार होते हैं, जो स्पष्ट रूप से उस हत्या से जुड़े होते हैं और सबसे नजदीकी होते हैं। दर्शकों से लेकर पुलिस तक का शुरुआती शक उन्हीं पर होता है। इसके साथ ही एक दो लोग ऐसे होते हैं जो लगता है कि यह भी कालित हो सकता है, पर एक दो फ्रेम के बाद पता चला जाता है कि यह कहानी में न भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। पर निर्देशक कहानी में रोमांच पैदा करता है और ऐसे किरदार गढ़ता है और हर पल कुछ नया और सिरहन पैदा करने वाला सामने आता है। कुछ ग्रे शेड वाले तो चौंकाने वाले तो कभी हंसी-मजाक करने वाले किरदार अचानक से जुड़ते हैं और लगता है कि यह तो महत्वपूर्ण कड़ी है, फिर कहानी आगे बढ़ती है तो पता चलता है कि यह तो बेकार ही उछल रहे थे, कि मुझे सारे राज पता हैं, पर यह ताे फुस्स पटाखा निकले। ऐसे में एक मुखिया टाइप का आदमी आता है, जो हर फिल्म में जरूरी होता है। दावा करता है कि मुझे सब पता है पूरी जड़ खोद दूंगा, मकान फोड़ दूंगा, जैसे सारी कहानी उसने ही लिखी हो। वह एक नई कहानी गढ़ने लगता है, अपनी बहादुरी के पुराने किस्से सुनाता है। दर्शक और पुलिस भी हैरान रह जाती है कि इसकी थ्योरी तो बिल्कुल सही जा रही है और यह कातिल का पता बता देगा, पर कहानी को गोल-गोल घुमा रहा है। कहानी आगे बढ़ती है और मुखिया टाइप आदमी सारी स्टोरी को 360 डिग्री पर घुमा देता है। सभी पुराने किरदारों को जोड़ने और उनके रोल पर शक, सुबहा और रहस्य में भागीदारी तय करके उसी मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है, जहां से वह एंट्री करता है। इस बीच कुछ आइटम नंबर भी हो जाते हैं। दो हीरो लगने वाले किरदान आपस में खूब टकराते हैं, डायलाग पर डायलाग बोले जाते हैं। पब्लिक भी खूब मजा लेती है और ताली बजाती है। ढाई तीन घंटे की फिल्म में खूब नाच गाना, सैर सपाटा, डायलाग, मारधाड़ चलती है। दर्शक आपस में अपना अनुमान लगाते हैं, कि अरे कालित तो फलां वाला है अरे नहीं हत्यारा वो है जो बाद में आया था, नहीं पहले वाला ही कातिल है। अचानक से आए नए किरदार को ही कुछ लोग साजिशकर्ता मान लेते हैं, तभी कुछ लोग कहते हैं कि ओ भाई यह किस एंगल से तुम्हे मास्टरमाइंड लग रहा है। कतई लौंडा है। हम कर रहे हैं ना कि पहले वाला ही निकलेगा। कुल मिलाकर एक रोचक फिल्म अंत तक दर्शकों को उतार-चढ़ाव और रहस्य के समुद्र में छोटी नाव लेकर निकले नाविक की तरह घुमाती है। समुद्र में ऊंची उठती लहरें भी टापू के समान लगती है, मतलब यह कि अब पर्दा, तब उठा का एहसास कराती है। अंत में पुलिस कातिल को पकड़ने में कामयाब हो जाती है। फिर दर्शकों कहते हैं, अरे मैं तो पहले ही कह रहा था कातिल यही होगा पर तुम मान ही नहीं रहे थे। मैंने कहा था ना कि इसके चेहरे से लग रहा था कि य कुछ न कुछ करेगा, बड़ा सीधा सा लग रहा था ससुरा खेल कर गया। यह खूबी होती है निर्देशक की है, जो अंत तक यह पता नहीं चलने देता कि उसने कहानी क्या लिखी है और किरदारों को किस प्रकार से गढ़ा है और किसकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होने जा रही है। ऐसे में कुछ किरदार अपनी एक्टिंग के बल पर ऐसे उभरकर आते हैं कि आगे चलकर स्टार बन जाते हैं। वहीं, कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें रोल तो दमदार मिलता है, पर वह उसे जाया कर देते हैं और आगे चलकर गुमनाम। एंड में सामूहिक फोटो में ही दिखाई देते हैं और लोग कहते हैं पहचान कौन। हालांकि, यदा-कदा किसी फिल्म में फिर से दिखाई देते है। यही सब चल रहा है उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में।        
यहां हर नेता खुद को इस चुनाव की गुत्थी सुलझाने की काेशिश में जुटा है, पर फिल्म की राइटिंग इतनी सशक्त है कि हर दिन मतदाताओं के दिगाग से खेल रही है। वहीं, मतदाता कहानी का अंदाजा लगाने का प्रयास कर रहे विशेषज्ञों का भी घुमा दे रहे हैं। चुनाव चल रहा है। इस दौरान कुछ बातें साफ हो गई हैं। एक तो इस कहानी के किरदार। तय हो चुका है कि कहानी में दो ही मुख्य किरदार है, योगी और अखिलेश। मायवती खामख्वां दम भर रही थीं और शुरुआती रहस्य पैदा करने की कोशिश भी की। पर इस बार उन्होंने खुद की अपना रोल कटवा लिया। जबकि, प्रियंका वाड्रा की एंट्री के साथ ही मतदाता समझ गए थे कि तुमसे न हो पाएगा। आम आमदनी वाले भैया आए, फ्री का झुनझुना बजाने लगे। पब्लिक को उनका झुनझुना एक मधुर संगीत के बीच कान फोड़ू लगा और उसकी और देखा तक नहीं तो उसे अपनी औकात समझ में आ गई। जब राजकुमार और शत्रुघन सिन्हा के डायलाग चल रहे हों तो फिर रितेश देशमुख के द्विअर्थी संवाद किसको भाएंगे। एक ओर सिंह की दहाड़ है तो दूसरी और लोमड़ी और सियार की धूर्त षडयंत्र। इसमें सस्पेंस पैदा करने के लिए ओमप्रकाश राजभर भी पूरा जोर लगाते हैं और खुद किंग मेकर के तौर पर पेश करते हैं। कहानी दर्शक समझने की कोशिश कर रहे होते हैं, तभी चौधरी साहब के वारिश अपनी अपनी पुश्तैनी दावेदारी ठोकते हुए जमीन वापस पाने के लिए अखिलेश भैया के खेमे में चले जाते हैं। अपने जाट लठैत और अखिलेश के गुंडों के बल पर डायलाग मारा कि अब बाबा को मठ में घुसेड़ के ही दम देंगे। उधर, बाबा के खेमे में खड़े दाड़ी रंगे सियार स्वामी भी पाला बदल लेते हैं। हीरो से लग रहे बाबा को भी डर सा लगने लगता है। दर्शक भी चौंकते हैं, अरे नहीं कहानी पलट गई, तभी अजय देवगन की तरह घूमती कार से उतरने वाली स्टाइल में अमित शाह एंट्री मार देते हैं। वह तो एक ही बैठक में खेल पलट देते हैं, चौधरी साहब जिन लठैतों के अपने साथ होने की दावा कर रहे थे, उनमें से ज्यादातर बाबा के पीछे खड़े होेकर अखिलेख के गुंडों को चुनौती दे रहे थे। दूसरी ओर से अखिलेश के गुंडे उन्हें देख लेने की धमकी दे रहे थे। पर कहानी के दर्शकों में सिरहन इसलिए हो रही थी कि क्योंकि पहले दो चरण की लड़ाई अखिलेश के समर्थक बाहुल्य क्षेत्र में हो रही थी। पर बाबा को थोड़ी सी चोट लगती है, पर वह हीरो ही क्या शुरुआत में गुंडों से मार न खाए तभी तो वह असली हीरो वाले रूप में आता है। हालांकि, पहले दो चरण में वैसा नहीं हुआ क्योंकि देश के सबसे बड़े स्टार मोदी की एंट्री बाकी थी। हालांकि, फिल्म का ट्रेलर वह काशी और एक्सप्रेस के जरिए दिखा चुके थे। पर चुनाव में धमाकेदार एंट्री और शानदार डायलाग डिलीवरी से मजमा लूट ले गए। ऐसे मंत्र फूंके कि दूसरे मुर्दे में भी जान डाल दी। जब 2017 की सुपर फ्लाप फिल्म के हीरो को लगा कि इन मंत्रों की काट जरूरी तो बंगालन दीदी को काला जादू करने के लिए पकड़ लाए। पर जादू क्या चलातीं, यहां आकर झाड़ फूंक भी नहीं कर पाईं। उधर, दो पीछे से उछल-उछल कर कामेडी कर रहे छोटा भीम के दो साथी ढोलू-मोलू स्वामी और राजभर को कालिया साबित हुए। बातें बड़ी-बड़ी और जेब खाली। वह तो ऐसे साबित हुए कि घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने, वाले साबित हुए। भाड़ पर पहुंचकर देखा उनके ढला तो खाली है। अब वहीं बच्चे की जमीन पर लोट-लोट कर रोने लगे, ना मैं तो पोटली भरके लायौ, रास्ता में बाबा लूट ले गयौ। मैं यहां ते चुनाव नहीं लडूंगौ, तब फिर अखिलेश भैया ने समझाया और दूसरी दोनों को उनकी पसंद की सीट देकर चुप कराया। पर वह हीरो ही क्या जो ऐसे जमूड़ों का लास्ट तक न सताए और नचाए। अब दोनों की हालत ऐसी है जैसे गब्बर सिंह के सामने बसंती की। गब्बर के नाच बसंती नाच बोलते ही दोनों जब तक है जान, जाने जहान मैं नाचूंगी वाले गीत पर ठुमके लगाकर जान की भीख मांग रहे हैं। वहीं, अपना दल वाली पटेल मैडम भी बसंती की मौसी की तरह जय द्वारा वीरू की खासियत सुनकर रिश्ता लौटा चुकी हैं। पर फिल्म का मजा यहां खत्म नहीं हुआ है। भैया ने दम लगाना छाेड़ा नहीं और हर मुहल्ले से अपने गुंडे इकट्ठा करने में ताकत से जुट गए। पश्चिम से लेकर पूरब तक नाहिद, मुख्तार अंसारी जैसे नेताओं को इकट्ठा कर ताल ठोक रहे हैं, पर जे नाए मालूम सामने बुलडोजर बाबा खड़ौ है। 
बकलम खुद 
तरुण पाराशर
आगे की कहानी अगले अंक में......

सोमवार, 2 मार्च 2020

धर्मनिरपेक्षता क्या जरूरी है

आज देश में धर्मनरपेक्षता पर सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए। इसे परिभाषित किए जाने की जरूरत है। 
हमें तो पढ़ाया गया है धर्म वो है धारण किया जाए, जीवन जीने की पद्धति है। ऐसी परिभाषा विश्व का अन्य कोई धर्म नहीं दे सका है, ना ही किसी धर्म में वसुधैव कुटुंबकम जैसा सूत्र वाक्य पढ़ने को मिलता है। हिंदुओं से अधिक धर्मनिरपेक्ष कोई हो ही नहीं सकता, कारण यह है कि धर्म को अपने तरीके से धारण करने का अधिकार हमें जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाता है। हमारे दादा- दादी, पिता-माता अपने-अपने तरीके से पूजा पाठ करते हैं। हमें छूट मिलती है कि हम अपने तरीके से पूजा पाठ करें या ना करें। मंदिर कब जाएं कब ना जाएं सिखाया तो जाता है लेकिन, अनिवार्य थोपी नहीं जाती, यही कारण है कि हम लोग किसी भी त्योहार या दिनविशेष में मंदिरों के बाहर सड़क पर खड़े होकर आरती नहीं करते हैं। मेरा मानना है कि अन्य कोई भी वह धर्म धर्म ही नहीं है, जो अपनी मान्यताओं को जबरदस्ती धारण कराने का प्रयास करता हो और थोपने का भी। 
इसके साथ ही मेरा मानना है कि उन शब्दों और स्वतंत्रता को संविधान से हटा देना चाहिए, जो हमें इतना निरंकुश व व्यभिचारी बना दें कि देश से पहले हैं अपने मनगढ़ंत विचारों की अभिव्यक्ति आजादी को आजादी मनाने लगें। अभिव्यक्ति की आजादी तभी अच्छी है जब राष्ट्रवाद पर हावी न हो। 

सोमवार, 13 नवंबर 2017

ये इंसानियत की आत्महत्या है

ये लड़की की नहीं इंसानियत की आत्महत्या है
मुरादाबाद:
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर युवती के आत्महत्या करने का वीडियो वायरल हो रहा है। यह वीडियो दिखाने से ज्यादा बहुत कुछ कह जाती है। यह बताती है कि हमारे अंदर इंसानियत मर चुकी है। किसी के मरने और जीने से हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इंसानों के मरने वाले दृश्य अब मनोरंजन का साधन बन गए हैं। मौत उस जमाने में खेल हुआ करती थी जब पृथ्वी पर बर्बरता का राज हुआ करता था। तब मनुष्यों की मौत को अलग-अलग और रोमांचक तरीके से प्रस्तुत कर बर्बर राजा अपना मनोरंजन करते थे। खुदकशी करने आई युवती की वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर डालना, उफ... यह शब्द उस युवती के ऊपर से ट्रेन गुजरने पर नहीं बल्कि वीडियो में नजर आ रही परछाईयों के पत्थर दिल होने पर निकलता है। उसे बचाने के बजाय वह वीडियो बनाने लग जाते हैं कैसा कठोर दिल होगा इन लोगों का। सच्चाई यह है कि यह खुदकशी उस युवती की नहीं बल्कि इंसानियत की थी। 
तरुण पाराशर

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

चुनाव

हो जाओ सावधान आ रहे है चुनाव

सब तरफ होगा घमासान

खीचा जाएगा आपका ध्यान

हो जाओ सावधान आ रहे हे चुनाव

सबके घर पर आयेंगे पैरो पर ध्यान लगायेंगे

नए मुद्दे और नारे सुनायेंगे

जीना दूभर कर देंगे प्रचार

जीतने के बाद हम वैसे भी है बेकार

पर आप रहे होशियार

क्या हम इतने हो चुके बेकार

अपना भला बुरा भी न समझ सके

अब तो जागो और इन्हे भी जगाओ

यही तो मौका है क्योंकि आ रहे है चुनाव

सोमवार, 15 सितंबर 2008

आत्ममुग्धता

आतंकवाद ज्यादा खतरा राजनेताओ की मानसिकता से होता जा रहा है। अब देखिये कि ग्रह मंत्री शिवराज पाटिल दिल्ली में हुए बम धमाको को दिवाली पर फोडे जाने वाले पटाखे से ज्यादा नै समझ रहे थे तभी ३ घंटे में ३ बार पोशाक बदलते रहे। ये बात किसी कीभी समझ से परे है कि किसी सम्पभु राष्ट्र का ग्रह मंत्री कैसे इतनी निर्लज्जता का प्रदर्शन कर सकता है। जन्हा उन्हें धमाको कि जानकारी एकत्रित करनी चाहिए थी वे गरीब देश कि जनता को अपने वस्त्र खजाने का प्रदर्शन करने से बाज नही आए । इसे संवेदनहीनता कि पराकास्था नही तो और क्या कहा जायगा। एक व्यक्ति जो आपने चुनाव श्चेत्र से भी जीत दर्ज न कर पाये उससे ५४५ श्चेत्र वाले राष्ट्र कि सुरस्क्चा का दायित्व क्यो दिया गया। उसका परिणाम सबके सामने है । उनको पड़ से हटा कर अपनी गर्दन बचने का प्रयास करने वालो को सामूहिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए । चार साल तक निर्दोष लोगो को मरवाते रहे अब चुनाव कि आहट आते ही उसे नाकारा और भ्रमित मंत्री सिद्ध करने लगे। बहुत सोचने और दिमाग के सरे घोडे दौडाने के बाद भी समझ में नही आ रहा कि कैसे हम अपने राष्ट्र को भयमुक्त और भ्रष्टाचार विहीन बना सकते है । फ़िर ख्याल आया कि पाटिल का मामला भ्रष्टाचार का नही है यंहा तो ग़लत तरीके से जीत हाशिल [ विश्वास मत ] करने वाली सरकार के एक आत्ममुग्ध मंत्री का है जो सोचता है कि मेरे पोशाक बदलने और सौम्य लहजे में बोलने से आतंकवादी इम्प्रेश होकर रास्ता बदल लेंगे तो ये उनकी भूल नही मानसिक बीमारी का परिचायक है।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

हमारी ओकात बताते धमाके

दिल्ली में हुए बम धमाकों से जो एक बात सामने आ रही वह यह की भारत का न तो कोईहर सुरक्षित है न कोई आदमी । लगता है जैसे देशभर में सिर्फ़ आतंकवादियों का कब्जा है वे जब चाहे जहा चाहे कुछ भी कर सकते है और हमारी सरकार सिर्फ़ निंदा करने के अतिरिक्त कुछ नही कर सकती । आज जब कही बम के साथ मानव अंगो के चिथड़े उड़ते है तो आश्चर्य नही होता बल्कि अपनी कीमत का एहसास होने के साथ ही भारतीय राजनीति के पराभाव के रसातल में पहुच जाने का दुःख जरूर होता है । आज हमारा मूल्य [ यानि हिन्दुओ ] एक वोट का भी नही रहा । वोट तो मुस्लिमो का कीमती हो चला है तभी हमारे राजनेता सिमी का समर्थन करते है गिरफ्तार सिमी कार्यकर्ता के घर जाकर सान्तवना देते है बांग्लादेशियो को नागरिकता की वकालत करके अपने आप को जाने क्या समझते है। बम धमाकों के बारे में टीवी और समाचार पत्रों में बहुत कुछ देखने और पढने को मिल जाएगा विचार मंथन होगा लेख लिखे जायेंगे चर्चाये होंगी। आप इतना कुछ होने के बाद भी सिर्फ़ उपभोक्ता बनकर रह जायेंगे टीवी चेनलो की टीआरपी बढ़गी । हमे क्या मिलेगा ? हमारे खोये हुए परिवार वालो पडोसियों और सबसे बड़ी बात नागरिको को कौन लौटाएगा । हम सिर्फ़ सनात्वना से ही संतुष्ट होरहेंगे या फ़िर कुछ कदम भी उठाएंगे । कहावत है घर का भेदी लंका ढहाए जो मूर्त रूप में सबके सामने है । आख़िर कब तक हम इन्हे अल्पसंख्यक कह कर इन्हे अलग होने का एहसास करते रहेंगे। ये मन लेना चाहिए की हम इनके सहयोग के बिना भारत के विकास की कल्पना भी नही कर सकते । आज जरूरत सबको समान दर्जा देकर एक एकीक्रत भारत बनाने की है न की समुदायों , पंथो और सम्प्रदायों के आधार पर नागरिको की पहचान वाले भारत की । आज अपना देश कबीलों में बटे प्रान्त की तरह होरा जा रहा है जहा एक कबीला अपने कबीले वालो को जनता है दूसरे उसके शत्रु होते है। कंही बाल और राज ठाकरे है जो प्रान्त तक सीमित है तो कंही कश्मीर के गुलाम मानसिकता वाले विचित्र प्राणी । इन सबसे ज्यादा दुखदायी है हमारी सरकार का कथित रूप से पन्थानिरापेस्छ होना । आप भी अपने आप से सवाल कीजिये इन बम धमाको के लिए क्या सिर्फ़ जाँच एजेन्सी और नेताओ को दोष देकर हम अपने कर्तव्यो की इतिश्री समझ लेंगे राष्ट्र निर्माण में हमारी कोई भूमिका बस इतनी ही है । एक गलत चयन कैसे सारे देश को नुकशान पंहुचा सकता है सबके सामने है। वक्त जागने का है और राष्ट्र निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर उसके प्रति अपने भावो और कर्तव्यों के निर्वाह के प्रदर्शन का है ।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

बिहार की त्रासदी

बिहार में आयी बाढ़ एक लंबे समय तक याद रखी जाने वाली मानवीय भूल का तमाचा है जिस का भुगतान आम जन को करना पड़ रहा है । समय रहते इस पर ध्यान दिया जाता तो इसे टाला जा सकता था । परन्तु सबक सीखना हम भारतीयों की मानसिकता में ही नही है । ये तय है की भाषण बाजी करके अपने अपने राजनितिक स्वार्थो के हित पुरे करने के अतिरिक्त और कुछ भी नही किया जाएगा । हम सभी को जागने के साथ अपने अधिकारों को समझ कर कर्तव्यों का भी निर्वाह करना होगा जिसमे सही व्यक्ति का चयन करने की समझ विकसित करना अनिवार्य होगा ।